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आचार्य श्रीराम शर्मा >> चेतना की शिखर यात्रा - भाग 2

चेतना की शिखर यात्रा - भाग 2

डॉ. प्रणय पण्डया

प्रकाशक : श्रीवेदमाता गायत्री ट्रस्ट शान्तिकुज प्रकाशित वर्ष : 2004
पृष्ठ :464
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 4314
आईएसबीएन :000000

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प्रस्तुत है समर खण्ड

Chetana Ki Shikhar Yatra

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

राष्ट की आजादी के बाद एक बहुत बड़ा वर्ग तो उसका आनन्द लेने में लग गया किन्तु एक महामानव ऐसा था जिसने भारत के सांस्कृतिक आध्यात्मिक उत्कर्ष हेतु अपना सब कुछ नियोजित कर देने का संकल्प लिया। यह महानायक थे श्रीराम शर्मा आचार्य। उनने धर्म को विज्ञान सम्मत बनाकर उसे पुष्ट आधार देने का प्रयास किया। साथ ही युग के नवनिर्माण की योजना बनाकर अगणित देव मानव को उसमें नियोजित कर दिया। चेतना की शिखर यात्रा का यह दूसरा भाग आचार्य श्री 1947 से 1971 तक की मथुरा से चली पर देश भर में फैली संघर्ष यात्रा पर केन्द्रित है।

हिमालय अध्यात्म चेतना का ध्रुव केन्द्र है। समस्त ऋषिगण यहीं से विश्वसुधा की व्यवस्था का सूक्ष्म जगत् से नियंत्रण करते हैं। इसी हिमालय को स्थूल रूप में जब देखते हैं, तो यह बहुरंगी-बहुआयामी दिखायी पड़ता है। उसमें भी हिमालय का ह्रदय-उत्तराखण्ड देवतात्मा-देवात्मा हिमालय है। हिमालय की तरह उद्दाम, विराट्-बहुआयामी जीवन रहा है, हमारे कथानायक श्रीराम शर्मा आचार्य का, जो बाद में पं. वेदमूर्ति, तपोनिष्ठ कहलाये, लाखों ह्रदय के सम्राट बन गए। तभी तक अप्रकाशित कई अविज्ञात विवरण लिये उनकी जीवन यात्रा उज्जवल भविष्य को देखने जन्मी इक्कीसवीं सदी की पीढ़ी को-इसी आस से जी रही मानवजाति को समर्पित है।

एक
एक पुण्य उर्जा के संस्कार


ताई जी नियमित रूप से द्वारकाधीश मंदिर जाया करती थीं। कभी कभार श्रीराम भी साथ हो जाने के लिए वे शाम का समय ही चुनते थे। साढ़े छह बजे होने वाली शयन आरती में ताई जी के साथ शामिल होकर वे विश्राम घाट पर आ जाते। यमुना की संध्या आरती उन्हें लुभाती थी। लोग दोना-पत्तों में दीप जलाकर रखते और यमुना के प्रवाह में छोड़ देते। श्रीराम स्वयं दीपक प्रवाहित नहीं करते। ताई जी अवश्य आरती के बाद दीप जलातीं। वे खड़े-खड़े उन्हें देखते रहते। कहीं जरूरत होती थी हाथ बटाते। मन होता तो विश्राम घाट की सीढियां उतर कर धारा में खड़े हो जाते। आरती और दीपदान के क्रम में एक बार श्रीराम ने विनोद किया, ‘ताई आज तो यमुना में सीधे उतर जाउं।’
‘क्या मतलब ?’ ताई ने डपट कर पूछा। श्रीराम बोले, ‘यह कि आज सीढी पर बैठ कर मुँह धोने और आचमन करने के बजाय यमुना में उतर कर ही आचमन कर लूं।’

ताईजी समझ गईं कि लाड़ला मजाक कर रहा है। उन्होंने मजाक करते हुए आँखें तरेरी और श्रीराम को घूर कर देखा। श्रीराम धीरे से हंस दिए और सीढ़ियों पर बैठकर आचमन करने लगे। वहां दीपदान कर रहे लोगों में किसी ने ध्यान नहीं दिया कि माँ बेटे में विनोद चल रहा है। दीपदान के बाद दोनों सीढ़ियाँ चढ़ कर आये तो सामने खड़े एक तेजस्वी साधु ने उन्हें टोका। संन्यासी वैष्णव संप्रदाय का अनुयायी था और माथे पर तिलक लगाए हुए था। उसने कहा, ‘बेटा माँ की गोद में तो किसी भी अवस्था में उतरा जा सकता है। यह विधि निषेध क्यों मानते हो कि आचमन करके ही धारा में उतरना चाहिए ?’

इस तरह सीढ़ियों पर ही रोक लेना और साधु द्वारा उपदेश देना अप्रत्याशित था। श्रीराम ने साधु को प्रणाम किया और बोले, ‘मेरे पास इसका कोई उत्तर नहीं है लेकिन मेरी माँ कहती है, इसलिए कभी कुछ सोचा नहीं। माँ का कहना ही मैं उचित मानता हूँ।’
उसी संन्यासी ने कहा, ‘यह माँ जिस जगन्माता की प्रतिनिधि है, उसने तुम्हें और भी तो आदेश दिए हैं।’
श्रीराम उस साधु का मुँह देखने लगे। वैष्णव साधु ने इसके बाद कुछ नहीं कहा। वह चुपचाप सीढ़ियां चढ़ने लगा। श्रीराम और ताईजी भी उनके पीछे-पीछे चल दिए। मन में प्रतीत हो रहा था, जैसे बात अभी पूरी नहीं हुई है। साधु कुछ और कहने वाला है। लेकिन सीढ़ियां चढ़ते हुए साधु ने एक शब्द भी नहीं कहा। वह चबूतरेनुमा मंदिर के पास आकर रुक गया। चबूतरे पर एक छोटा सा मन्दिर बना हुआ था। लोगों का विश्वास है कि कंस का वध करने के बाद कृष्ण ने इसी जगह विश्राम किया था। साधु चबूतरे के पास खड़ा होकर श्रीराम की ओर देखने लगा। उसने कहा, ‘जानते हो न ! जगन्माता ने तुम्हें आदेश दिया है ?’

श्रीराम उसकी बातों को समझ नहीं पा रहे थे। अवाक से उसकी ओर देखते रहे। साधु बोला, ‘यहाँ श्रीकृष्ण ने बैठकर कुछ देर अपनी क्लांति मिटाई थी। विश्राम किया था। इसलिए यह जगह विश्राम घाट कही जाती है। जिस जगह आत्मिक क्लांति का निवारण होता है, उसे ‘आश्रम’ कहकर भी सम्बोधित किया जाता है।’
यह कहकर साधु क्षण भर के लिए रुका। फिर बोला कि मथुरा में ऐसे स्थान का अभाव है। अगर तुम्हारे मन में इस तरह की स्थापना का भाव आया हो तो उसे विश्वमाता की प्ररेणा ही समझना।

यह कहकर साधु यमुना की ओर मुड़ा। वह उस पार देखने लगा। श्रीराम ने उस इंगित की ओर देखा। जिस तरफ साधु देख रहा था, वहाँ यमुना के उस पार महर्षि दुर्वासा का स्थान था। अब उस जगह एक भव्य मन्दिर बन गया है, लेकिन तब वहां साधारण सा देवालय था। श्रीराम दुर्वासा मन्दिर की ओर देखते हुए अपनी दृष्टि घुमाते कि साधु घाट से ऊपर चढ़ने लगा। ताई जी भी यह सब चुपचाप देख रही थीं। श्रीराम को किन्हीं विचारों में खोया देखकर वे बोलीं, ‘चलना नहीं हैं क्या ? वापस चलो देर हो रही होगी।’

यह घटना अक्टूबर 1941 के तीसरे सप्ताह की है। दीपावली का त्यौहार समीप ही था। शायद दो तीन दिन ही रहे होंगे। ताई जी का निर्देश सुनकर श्रीराम आगे बढ़े। घाट से बाहर चौक पर आते ही उन्होंने साधु को फिर देखा। विश्राम घाट पर संध्या के झुरमुट में साधु की आकृति स्पष्ट नहीं दिखाई दे रही थी। चौक पर आते ही दूकानों में जल रहे पैट्रोमैक्स, लालटेन और मशालों की रोशनी में साधु का चेहरा स्पष्ट दिखाई दिया। वह पैत्तीस चालीस वर्ष के बीच का तरुण संन्यासी था। स्वस्थ, हृस्टपुष्ट शरीर और बातों से वह कुलीन परिवार का और विद्वान लग रहा था।

पुष्टिमार्गी साधक से भेंट


चौक में आकर उस संन्यासी ने श्रीराम का परिचय पूछा। उन्होंने अपने काम के बारे में सकुचाते हुए परिचय दिया। कहा, ‘हम लोग गायत्री उपासना का प्रचार करने में लगे हुए हैं। आगे यह काम बड़े स्तर पर करने की प्रेरणा है। देखें क्या होता है ?’

साधु ने भी अपना परिचय दिया। नाम बताया माधवदास। स्वयं को पुष्टिमार्गी का साधक कहा। ताईजी बीच में ही बोल उठी, ‘तब तो आप भागवत भी अच्छी कहते होंगे। किसी दिन हमारे डेरे पर आइए न।’
साधु माधवदास ने ताई जी का निमंत्रण स्वीकार किया। साथ ही यह भी कहा, ‘भागवत तो भगवान का लीला विग्रह है। उसकी जो भी आराधना करेगा वह तर जाएगा। और माई आपके दुलारे ने तो भागवत् के बीज मंत्र का ही आश्रय लिया है।’
‘लेकिन यह कथा नहीं कहता। इसके पिताजी अच्छी कथा बांचते थे। हजारों लोग उन्हें सुनते थे।’ ताईजी कहे जा रही थीं। वे अभी श्रीराम की शिकायत करने ही वाली थी कि साधु माधवदास ने कहा, ‘प्रभु की इच्छा समझो माई। उसे जिनसे जो काम लेना होता है, ले ही लेता है।’

साधु माधवदास वल्लभाचार्य की बैठक के पास रुके हुए थे। उन्होंने माँ बेटे को अपने साथ चलने के लिए कहा। श्रीराम ने कहा कि अभी देर हो रही है। कल आप घीयामंडी आइए। वहीं भोजन भी कीजिए। साधु माधवदास ने श्रीराम को वहीं खड़े-खड़े विश्रामघाट के बारे में कुछ विचित्र बातें बताईं।

पुष्टिमार्ग के ग्रंथों में खासतौर पर ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’ में उल्लेख मिलता है कि वल्लभाचार्य ने विश्रामघाट का उद्धार किया था। चमत्कारिक ढंग से इस तथ्य का वर्णन किया जाता है। वार्ता के अनुसार वल्लभ स्वामी मथुरा आये तो स्नान करने के लिए विश्रामघाट जाने लगे। वहाँ यमुना के पंड़े उजागर चौबे और उसके साथियों ने स्वामी जी को रोका। उसने कारण बताया कि दिल्ली के सुलतान सिकंदर लोदी का एक कामदार यहाँ आया था। चतुर्वेदियों ने उसका मजाक उड़ाया। उससे कुपित होकर कामदार रुस्तम अली ने विश्रामघाट पर एक ऐसा यंत्र लगा दिया कि वहाँ जाते ही लोगों का धर्मभ्रष्ट हो जाता है। उनकी शिखा कट कर गिर जाती है और यज्ञोपवीत भंग हो जाता है। यही नहीं उनकी मुसलमानों की तरह दाढ़ी भी निकल आती है।

वल्लभ स्वामी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया। वे अपने साथियों को लेकर विश्रामघाट चले गए। अपने शिष्यों सहित यमुना में स्नान किया और ‘शरणं मंत्र’ का जाप करते हुए बाहर निकल आए। उन लोगों पर यंत्र का कोई प्रभाव नहीं हुआ। लेकिन बाद में दूसरे लोग यमुना में स्नान के लिए गए तो उनके साथ वही त्रासदी हुई। उनके सिर के लंबे केश कट गये। शिखा लुप्त हो गई और जनेऊ भी टूट कर गिर गई। कथा कहती है कि मथुरा के लोगों ने पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक वल्लभ स्वामी से यह मंत्र बाधा हटाने का अनुरोध किया। आचार्य वल्लभ ने उन लोगों की बात सुनी और एक अलग यंत्र बनाया। वह यंत्र उन्होंने अपने दो शिष्य वासुदेव दास और कृष्णदास के हाथों दिल्ली भिजवाया। दिल्ली में उस समय सिकंदर लोदी का शासन था। कथा के अनुसार यंत्र से बादशाह इतना प्रभावित हुआ कि उसने विश्रामघाट पर लगा बाधा यंत्र हटाने का आदेश दे दिया।

साधु माधवदास ने यह कथा सुना कर श्रीराम से पूछा कि क्या सचमुच ऐसा हुआ होगा ? उन्होंने तुरंत कुछ नहीं कहा और अगले दिन घियामंडी (निवास) पर इस संबंध में विमर्श के लिए कहा। अगले दिन साधु माधवदास समय पर घियामंडी पहुँचे। परिवार में उनका आत्मीय सत्कार हुआ। साधु माधवदास ने वहाँ चल रही प्रवृत्तियों को बारीकी से देखा। भगवती गायत्री के सम्मुख चल रहा अखंड दीपक, वहाँ चलने वाला उपासना क्रम, अभ्यागतों के लिए लिए सत्कार की समुचित व्यवस्था, दो मंजिले मकान में कार्यालय और निवास आदि ने माधवदास को अभिभूत कर दिया।

आतिथ्य का दायित्व स्वयं माताजी ने संभाला था। ‘अखंड ज्योति’ कार्यालय में काम करने वाले छोटे बड़े कार्यकर्त्ता तब श्रीराम की लीला सहचरी को माँ या माताजी कहने लगे थे। ताई जी और बड़ी उम्र के लोग ही उन्हें सहज रिश्तों के स्नेह संबोधन से पुकारते थे। स्वामी माधवदास जी ने श्रीराम की लीला सहचरी को माताजी कहा।
माँ भगवती देवी ने रोका कि स्वामी जी आप तो कम से कम ‘माताजी’ मत कहिए। साधु माधवदास ने कहा, ‘मैं ही क्या’ आपका हजारों लाखों लोगों का भरा पूरा परिवार आपको इसी संबोधन से पुकारेगा। उसमें सभी उम्र और आश्रम के लोग होंगे।’

यह चर्चा चल रही थी कि ताई जी आ गईं। उन्होंने पतिदेव पंडित रूपकिशोर जी के कथा वैभव का जिक्र छेड़ दिया। कहने लगीं कि श्रीराम ने उन बातों को बिसरा दिया है। लेकिन उन्हें कोई शिकायत नहीं है। कुछ-कुछ कथा भागवत कहता रहे तो अच्छा हो। सुनकर श्रीराम भी मुसकरा रहे थे और साधु माधवदास भी। उन्होंने विश्राम घाट की बात याद दिलाई और कहा, ‘ताई जी यहाँ वल्लभ स्वामी ने बैठकर कथा कही थी। सिर्फ एक बार। और वह स्थान तीर्थ हो गया। मैं श्रीराम के बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानता, न ही कहता हूँ। लेकिन वेदमाता इसी तपस्वी आत्मा को अपना वाहन बनाएगी। वह जहाँ भी बैठेगा, तीर्थ बन जाएगा।’


यंत्र बाधा का निवारण



विश्रामघाट पर वल्लभाचार्य की बैठक का प्रसंग छिड़ते ही कल छूट गई अधूरी बात याद आ गई। साधु ने श्रीराम को छेड़ा ‘हां उस यंत्र का रहस्य बताइए।’
श्रीराम कहने लगे, ‘यंत्र बाधा की प्रचलित कहानी में कल्पना का रंग ज्यादा है। उस समय सिकंदर लोदी का जैसा आतंक था, उसे देखते हुए कोई भी व्यक्ति उसका अथवा किसी राजकीय कर्मचारी का उपहास उड़ा ही नहीं सकता था। कुछ विद्वान रुस्तम अली का मजाक उड़ाने की बात सही मानते हैं। हो सकता है यह बात कुछ अँशों तक सही हो। लेकिन यंत्र बाधा और उसके निवारण के लिए दूसरा यंत्र लगाने का वृत्तांत आलंकारिक वर्णन ही ज्यादा है।’

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